Monday, 2 May 2016

मानसिकता बदले तो बदले समाज


बहुत दुःख होता है जब लगता है की सुनने वाला सुन्ना ही नहीं चाहता, किसी कार्यवाही की संभावना तो तब बने जब कोई काम करने की मनसा रखता हो, अपने हर एक कृत्य में खुद को गुनहगार समझता हूँ, क्युकिँ गुनाह का साथ नहीं दे रहा ना ही किसी भी प्रकार से भागीदार हूँ लेकिन देख रहा हूँ की हो रहा है और शांत बैठा हूँ तब भी किसी किसी मायने में गुनाह का भागीदार तो हूँ ही, और कोई नई बात नहीं लिख रहा बल्कि ध्यान आकर्षित कर रहा हूँ की क्यों चुप है हम |
एक वाकये से बयान करता हूँ कुछ वर्ष पहले मैं एंट्रेंस एग्जामिनेशन के लिए बर्नपुर, वेस्ट बंगाल गया था, दूर के किसी रिश्तेदार के यहां ठहरा था गर्मियों के दिन थे, दो दिन पहले पहुंच गया था, एक शाम किसी कारण बिजली चली गयी और कोई छुट्टी का दिन था, गर्मी के मारे हालत खराब थी, रात भर बिजली नदारद रही, बड़ी मुश्किल में रात कटी, रात भर सोचता रहा की अगर घर पे रहता तो कुछ कुछ जुगाड़ से काम हो ही जाता, सुबह उठ के पता चलता है की अभी और इंतज़ार करना है क्युकिँ सरकारी बिजली कर्मचारी को आने में समय लगेगा, मुझे तो धक्का लग गया, क्या ऐसा भी कोई कर्मचारी होता है या उससे बुलाया जा सकता है, तो फिर मेरे घर के आस पास ऐसा क्यों नहीं होता, क्यों लोग खुद ही सारे काम कर देना चाहते हैं, बहुत सोच के निन्मलिखित विकल्प निकले :
) शायद यहां के लोग हर काम में माहिर हैं,
) इंतज़ार करना पसंद नहीं करते,
) क्या कर्मचारी कामचोर हैं या आनाकानी करते हैं,
लेकिन हकीकत कुछ और ही निकली, शाम को ऐसे ही छत पे खड़ा था तो कोई लड़का आके डंडे से तार फंसा के बिजली वाले खम्बे पे लगा रहा है, देखा की सबके तार वैसे ही लगे हुए हैं, लगातार यही दृश्य रोज देखने को मिला वो लड़का आता अपना काम करता और चला जाता, सोचा जब सबके तार लगे हुए हैं तो वो रोज आके अपना तार क्यों लगता है एक दिन लगा के छोड़ भी तो सकता है, कुछ खोज करने पे पता चला की वो बिजली की चोरी कर रहा है और ऐसा करने वाला वो एक नहीं मेरे मोहल्ले के कई लोग हैं|

अब सोचता हूँ क्या मेरी पढाई पैसा कमाने के लिए ही है या मुझे समाज की दशा को सुधारने में भी भागिदार होना चाहिए

कृपया कुछ सुझाएं|

Saturday, 9 April 2016

# मनन कर ...


रंजिश नहीं अब तो कुछ हुंकार कर,
कम से कम अपनी जिद्द पे ही उपकार कर,
कम ही सही लेकिन दुरुस्त हो काम तेरा,
शक्ति संजो, और समय देख प्रहार कर।

मूरत पे नहीं अपने साहस पे विचार कर,
दूसरों के नहीं अपने सपने भी साकार कर,
निचा दिखाना और विनाश रहित हो कर्म तेरा,
मंज़िल भटकाए जो वार उसे तू लाचार कर।

मन को तेरे भी हमेशा प्रेम का अधिकार है,
पर दिल से खेलने का आया नया व्यापार है,
तलवार भी नहीं मिटा सकता किसीकी भावना,
तब भी गर हठ न छोड़ा तो ये तेरा अहंकार है।

और क्यों भटक तू राह पकड़े सिर्फ पाने प्रीत को,
क्या कभी किए इतने जतन लेने अपनी जीत को,
                                                    बेअर्थ हैं सारी बातें गर मनन तू अब भी ना करे,
                                                    तो खो जएगा जैसे लाखों खोए निभाने इस रीत को।

Tuesday, 1 March 2016

## गाथा-ए-सैनिक...###

करता हूँ मैं नमन तम्हे और हरदम शीष झुकाउंगा,
और चाहे उठे लाखों ही कटार फिर भी मोल चुकाऊंगा,
नहीं चाहिए मुझे करतल धुनें मात्र देश का सम्मान हो,
करना है तुम्हे जो भी करो, पर मैं माटि की लाज बचाऊंगा।

करने दे कर्तव्य मुझे थकके फिर चाहे सो जाऊंगा,
नींद में हूँ या हूँ सजग धोंखा कभी न कर पाउँगा,
नहीं चाहिये तमगे, मैडल, बस याद मुझे सदैव रखना,
जीते हुए ही क्या, मैं मर कर भी फ़र्ज़ निभाउंगा।

देखें हैं मैंने बातूनी बहोत, असली अर्थ मैं समझाऊंगा,
ना ही दिखावा करने को कभी भी मैं बौखलाउंगा,
कबका छोड़ चुका साथी, गाँव, डगर, आराम सभी,
जीवन में इन बातों से कभी भी न मैं पश्चाताऊँगा।

तम्हे चाहिए ऐसों आराम मैं तो बर्फ ओढ भी सो जाऊंगा,
नारे बाज़ी की आदत नहीं, पहले सर कटवाऊंगा,
बन्द करो अब ये विवाद मेरा लहु भी अब सुख गया,
सर कट भी जाए फिर भी मैं पहले तिरंगा फहराऊंगा।

तम्हे मतलब होगा सिर्फ वोटों और नोटों से,
सपने मेरे भी हैं बहोत बड़े पर सबसे पहले क़र्ज़ चुकाऊंगा।

Tuesday, 23 February 2016

## सत्य #।।।



फर्क होता है बात और सच्चाई में, 
अर्थ में और बात की गहराई में,
पर मतलब तो अकसर गलत से होता है,
सीखना जरुरी अंतर सत्य और परछाई में।

कुछ पल इन्सां बात टटोलने पे लगाता है,
और अपनी हरकत से झुक भी जाता है,
और फिर संभाले कितना भी माहोल को,
मूख से निकला वो वापस कहाँ आता है।

जरुरी नहीं मेरी इन बातों को मान दो,
ना ही मेरी बात सुन कोई एहसान दो,
लेकिन एक कृत से सब बिखर जाता है क्या,
बाकी की मेरी हरकतों पे भी तो ध्यान दो।

पता है बहोत बुरा हूँ मैं, खुदको पहचानता हूँ,
किसिको धोंका नहीं दिया यह भी जानता हूँ,
दुःख का कारण अक्सर बनता हूँ सबके,
लेकिन दवा भी बना हूँ ये भी मानता हूँ।

मेरी कुछ बातें दिल को चुभती जरूर है,
और कुछ तो शब्दों को भी मजबूर है,
टटोल दी तो बुरी लग गई बातें मेरी,
तो मेरा बोलना ही क्या एक कसूर है।

आँखों से दिखे वो सत्य हमेशा नहीं होता,
कानो सुनी बात का भी भरोसा नहीं होता,
मनन करना मेरी बातों का तन्हाई में ही,
कभी-२ खंजर लिए खड़ा भी मुझरिम नहीं होता।

Sunday, 4 October 2015

॥ प्रयास॥॥

गर्दिशों में खोया हूँ तो हुआ है एहसास,
की चैन से ज्यादा ख़ास कोई नहीं है प्यास,
मुसिबतों के दलदल में फंस जानी है एक बात,
हार के टूट जाता है प्राणी करते-2 प्रयास,

सोचा निर्भय हूँ पर एक आहट से डर गया,
थोड़ी सी नफरत से नादान मैं बिखर गया,
झमेलों में वक़्त और कठिन रास्तों के फंस,
अब फूलों पे ओस वजन देख ही सिहर गया,

भीड़ में अक्सर कुछ दूर चल रुक जाना,
मंज़िल न देख, अब कोई बहाना बनाना,
सोचता हूँ ढूँढू कुछ पल खुदको संजोने को,
शाम होते-2 नये दिन के लिए निखर जाना,

अब तू दूसरों की ख़ुशी की कोशिश नहीं,
अपने चैन और ख़ुशी का मात्र प्रयास कर,
जिक्र अपने फिक्र की अब तू बंद कर,
खोने का नहीं खुद के होने का एहसास कर॥

Tuesday, 18 August 2015

॥॥ कोशिश...॥॥

हर्ज़ क्या है जो मुश्किलों को मैं दूर करूँ,
और पार पाने को जतन भी जरूर करूँ,
रटते रहना की हौसले काम करेंगे कभी,
फिर हार के मैं आखिर में इन्हें मंजूर करूँ॥

होते हैं जीने के भी इस दौड़ में मायने कई,
और टूट जाते हैं होड़ में हर्ष के आईने सभी,
मुड़ के देखूं तो दिखतें हैं धुंएँ प्रयास के मेरे,
और जाता हूँ इस भीड़ में बाएं तो दाहिने कभी॥

फ़िक्र तो होती है अक्सर ही अपनों की यहाँ,
पर कैसे कृत्य करूँ साकार इस वास्ते वहाँ,
थक के बैठ जाऊँ गर तो होगा अब मान कम,
और प्रयत्न न करूँ तो बताओ जाऊँ कहाँ॥

Saturday, 15 August 2015

॥॥ संछेप... ॥॥

सना हूँ जबसे रंगो की बातों से,
दिल और कभी दिमाग के अल्फ़ाज़ों से,
समीकरण मिलाके आखिर में जाना,
अब होगी रंगत पूरी अलग-2 साज़ों से॥

सवालों, जवाबों का छाया है ऐसा असर,
की जब भी जाता हूँ इस शहर से उस शहर,
कुछ गुम तो कभी मैं बिलकुल खो जाता हूँ,
साँसे तो हैं लेकिन बचा नहीं अब कोई कसर॥

और संछेप में बयान करूँ क्या अब तक़दीर,
सारे प्यादे ढेर हुए और बचा है सिर्फ वजीर,
किनारे पे आ अब कोई गलत चाल न चल दूँ,
की छीन जाए एकमात्र जो बाकी है ये शरीर॥

Friday, 17 April 2015

॥# आभाव ##

बंदिशों में अल्फाजों को तराशा है,
पर लब्ज़ यहाँ थोड़ा और जरा सा है,
गुनगुना भी लूँ पर धुन भी कम यहाँ,
अभाव हर कहीं, कुछ इस तरह सा है॥

आनंद में अब भाषा जुबान की चुन लूँ,
जरुरत हो तो इशारें की चाल भी बुन लूँ,
हर किसी को दूर रखूं ये स्वभाव मेरा,
इतने प्रयासों बाद कौन सी अब धुन लूँ॥

पर तेरी बातों में लगता है इज़हार नया,
तेरी फ़िक्र मेरी नादानी है या और क्या,
समझा सके तो समझा दे मतलब इनका,
या मेरी चुप्पी पे भी नही ऐतबार क्या॥

और खामोशियों की आदत नहीं थी मेरी कभी,
शिकायतों को कम करूँ बस प्रयत्न है अभी,
पर इन सब से हुआ हूँ गुनहगार और ज्यादा,
कैसे नाराज़गी दूर करूँ अब सबकी और सभी॥

इसे लाचारी समझों या पत्थर की आवाज़,
अब क्या करूँ बचा नहीं है मेरा कोई साज़ ॥