Friday, 17 April 2015

॥# आभाव ##

बंदिशों में अल्फाजों को तराशा है,
पर लब्ज़ यहाँ थोड़ा और जरा सा है,
गुनगुना भी लूँ पर धुन भी कम यहाँ,
अभाव हर कहीं, कुछ इस तरह सा है॥

आनंद में अब भाषा जुबान की चुन लूँ,
जरुरत हो तो इशारें की चाल भी बुन लूँ,
हर किसी को दूर रखूं ये स्वभाव मेरा,
इतने प्रयासों बाद कौन सी अब धुन लूँ॥

पर तेरी बातों में लगता है इज़हार नया,
तेरी फ़िक्र मेरी नादानी है या और क्या,
समझा सके तो समझा दे मतलब इनका,
या मेरी चुप्पी पे भी नही ऐतबार क्या॥

और खामोशियों की आदत नहीं थी मेरी कभी,
शिकायतों को कम करूँ बस प्रयत्न है अभी,
पर इन सब से हुआ हूँ गुनहगार और ज्यादा,
कैसे नाराज़गी दूर करूँ अब सबकी और सभी॥

इसे लाचारी समझों या पत्थर की आवाज़,
अब क्या करूँ बचा नहीं है मेरा कोई साज़ ॥

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