अब तक तो बहोत ही खांक चुन चुका,
खो के जिया हूँ और कई ख्वाब बुन चुका,
गिरा भी हूँ कई दफ़ा इस सफर में खा के ठोकर,
लोगों की सुनी बस, अंदर की आवाज़ कभी न सुन सका।
समाज की समझ से चला तो जोश बढ़ाया गया,
और तो और, सही को भी गलत ठहराया गया,
मन की अगर सुनी कभी तो, मैं बन गया अहंकारी,
इसपे भी गर जीत गया तो मिसाल बनाया गया।
हार की भी सुन लो कहीं बात अधूरी न रह जाए,
कोई ज़ख्म नहीं जहां में जो सबकुछ खुद ही कह जाए,
बढ़ता चला गया अंगारों पे मन मे दबाए राज़ कई,
और फिर इस दफे भी कोई बात जरूरी न रह जाए।
इसी सोच में मौन मैं बस कहने की सोचता रहा,
भटक गया मंजिल से तो फिर खुद को टोकता रहा,
मन मे ही हारा कई दफ़ा और जीता भी हूँ,
और फिर किस्मत को हर बार ही कोसता रहा।