EniGmA
Friday, 15 December 2017
Wednesday, 29 November 2017
विचलित...
ज़माने की रुस्वाई देख,
विचलित हुआ कृतज्ञ हुआ,
स्वतः पतन बर्ताव, विवेक,
मूर्छित हुआ स्थिर हुआ,
लोग एक चेहरे अनेक देख,
भयभीत हुआ निस्तेज हुआ,
अपना मन देख शिथिल अडिग,
परिक्षीण हुआ असमर्थ हुआ,
ऐसी निष्क्रिय स्तिथि देख,
अर्थहीन हुआ गतिहीन हुआ,
जीवन को देख निश्चल शांत,
मंद हुआ पाबंद हुआ,
भीड़ में स्वं को अकेला देख,
धूमिल हुआ तिरस्कृत हुआ,
मृत्यु के देख दावं पेंच,
क्रोधित हुआ धैर्यहीन हुआ...
जवाब।।।।
मायने ज़िन्दगी के कुछ बदल जायेंगे,
टूटे हुए रिश्ते भी अब संभल जायेंगे,
कोशिश कभी-२ नाकाम भी होती है,
कायरों के दिल क्या कभी पिघल पाएंगे।
उरी, पठानकोट क्या सिर्फ बात है,
ना जाने टूटे कितनो के जज्बात हैं,
दोस्ती, सैयम अब झंजोर देती है,
सच्चाई दिखा भी पाए हमने आघात हैं।
चुप्पी की बीन कब तक बजाते रहें,
लोक लाज निभा फिर पछताते रहें,
दुश्मन को जवाब अब तो जरुरी है,
या फिर मूक हो शीष हम कटाते रहें।
मानता हूँ युद्ध नहीं हर मुश्किल का उपाय, मगर रोको जो मुस्कान के पीछे खंजर है छुपाए,
और सामर्थ का कभी अंदाजा लगाना नहीं क्योंकि,
अब उलझे तो तुम्हारी पहचान भी बच न पाए।
नक़्शे से मिटाने की सिर्फ बात नहीं करते,
हम पीठ पीछे भी कभी आघात नहीं करते,
इतिहास के पन्ने पलट लो गर शक है तो,
जूझते हैं पर गिड़गिड़ा के फ़रियाद नहीं करते।
संभाला ही नहीं पाला है तुम्हारे सितारों को,
दुदकार दिया जिसे तुमने उन कलाकारों को,
पिलाया है पानी खुद को प्यासा रख के,
और एहसान चुकाया उठा तुमने हथियारों को।
Sunday, 26 November 2017
नज़र आता है...
खोजने गया मनसूबे और सुकून को जब,
झोकों में बहता हुआ इल्जाम नज़र आता है|
मुश्किलों में बेबस और लाचार हुआ कुछ,
तो हर एक सांस में एहसान नज़र आता है|
मन मार के जब बैठा शांत जब भी कभी,
तो फुरसत में भी गुनाहों का गुमान नज़र आता है|
अंत में कितनो को टोकने और रोकने के बाद,
खुद को सँभालने को सिर्फ जाम नज़र आता है|
समझा दूँ गर कभी कोई मान ले बात मेरी,
तो मुहँ फेरता हर एक इंसान नज़र आता है|
कैसे करूँ अब बयान अपने जज्बातों को,
जब खुद में ही अक्सर शैतान नज़र आता है|
जब सोचा सीखा दूँ जीवन का मतलब ही सभी को,
आँखे खोलते ही सामने समशान नज़र आता है|
Thursday, 23 November 2017
मूक ...
इतिहास से हुई जो छेड़छाड़ गलत है,
चाहे होने दो यहाँ आज की हार,
और जब सोचता है इंसान इतना तो,
फिर क्यूँ करता यहाँ भाई, भाई पे वार।
रुक जाता सब गर कोई नेता गुजर जाए,
थम जाती हैं साँसे लाखों की ये सुन तब,
और कोई नही टोकता देख के साजिशों को,
फिर क्यूँ करते भीड़ में दिखावे का नाटक सब।
देखा है मैंने अंगारे आँखों में भीड़ के,
उठ खड़े होते हैं सोते हुए भी इस होड़ में,
शिकार बनते हैं जो अक्सर मौसम के मुताबिक,
वो भी चूकते नहीं होने से इस दौड़ में।
बैंगलुरु की हो बात या सियाचिन का हाल,
सबमे है यहाँ मौके पे पीठ दिखा देने की चाल,
और फिर कई, गलतियों पे प्रश्न उठाते हैं,
क्यूँ पूछते नहीं लोग खुद से यही सब सवाल।
इंसान की हालत देख सच्चा कोई बर्फ ओढ़ गया,
सच्ची लगन थी फिर भी बहस का मुद्दा छोड़ गया,
सिर्फ बात तिरंगे की करने वालो पे खुश हुआ लेकिन,
फिर लड़ न सका इस वहम से तो मुहँ खुद ही मोड़ गया।
भीड़ में चलने और चरने की सबकी आदत है,
कोई हो सच्चे मन का तो हुई उसकी शहादत है,
रिवाज अनोखे से, अनदेखा करना सही सोच को,
बड़बोला मैं भी और यूँही चल रही चुप्पियों की रिवायत है।
Friday, 10 November 2017
शादी-ए-फसाना ...#
रुख्सत नहीं अब खेलनी नई पारी है,
गम ख़ुशी को बाटना भी बारी-२ है,
उठ के गिर के रास्ता कट ही जयेगा,
लेकिन निभाना भी दोनों की जिम्मेदारी है।
शादी का लड्डू खाना आसान होता है,
यहाँ कोई कुछ पाता तो कभी कुछ खोता है,
जब मुड़के देखा तो फुर्सत में भी कमी दिखी,
अब गम में भी ये दिल खुशियाँ ही संजोता है।
और स्याही की कमी अब भी न पाता हूँ,
अपनी बातों ख्यालों से सबको सिखाता हूँ,
अब आलम ये की दो विचार जुड़ गए हैं,
किसी भी हालात रहा हर रिश्ता निभाता हूँ।
जंग का मतलब अब मुझे भी समझ आया है,
की रंजिश में भी वैरी को सामने ही पाया है,
नदी के किनारों भांति ही रहें पर रहे सामने,
मतभेद हुए पर ये क्लेष कभी मनभेद न लाया है।
एक दूसरे की कमी को अब ताकत बनाना है,
और अब खुदको नहीं एक दूसरे को मनाना है,
नोक झोंक भी होगी, विचार गुनहगार भी होंगे,
खुद को नाराज़ करके भी खुशियों को बुलाना है।
Thursday, 9 November 2017
... डिगाने ...
मुझे आदत है दूर जाते अहसास भुलाने का,
मौसम बदलने और छोड़ जाते इंसानों का,
गुजरते वक़्त में रूठ के अहसान जाताना,
मंजिल दीखते ही मुड़ जाते बेईमानों का।।
पर गम नहीं इस बेरुखी का ज़माने की,
महसूस होती है कमी अब उस खजाने की,
मेरी बातों में ना जाने ऐसी क्या कमी थी,
कोशिश भी नाकाम उस ज़िद को मानाने की।।
लेकिन समझदारी है अक्सर सच्चाई अपनाने में,
छोटी-2 खुशियों से जीवन को सजाने में,
मुश्किल तो है सांस लेना भी इस डगर आके,
हरकत तो हमेशा होती ही है इंसान को डिगाने में।।
अब चुप रह और मुझे भी चुप रहने दे,
ये लहू भी चुपचाप यूँही अब बहने दे,
पहचान सके तो पहचान लाल रंग अब तो,
रोक दे या आदत है तुझे तो मुझे भी सहने दे।।
Saturday, 4 November 2017
### दिलासा...###
उड़ने को ले आया लिबास नया,
दिखावे से ही करने सबकुछ बयां,
भीतर की कमियों को रख किनारे,
मुश्किलों का सामना कर पाउँगा क्या।
मुकरा भी हूँ कई बार इस राह में,
अंदाज़ा लगा अब नए हिसाब में,
गिरा तो फिर हो गया खड़ा भी,
हार तो कभी जीतने की चाह में।
हिस्सा बना यहाँ हर किसी के दर्द का,
कारण बनके कभी तो कभी बना मर्ज़ सा,
मुमकिन है मेरा अब तो टूट भी जाना,
लेकिन फिर हुआ एहसास मुझे फ़र्ज का।
फिर होके तैयार लेके नयी अभिलाषा,
शामिल हुआ भीड़ में बदलने को परिभाषा,
कभी उड़ा हूँ कभी हूँ तैरा कभी रेंगता सा,
किए ग़ुनाह उड़ने को तो कभी दिया दिलासा।
दामन को साफ़ रखूँ यही है मेरा इरादा,
कोशिश कभी कम तो की कभी है ज्यादा,
क़ाबिल हूँ कब तक इसका पता नहीं,
लेकिन जी जान से जुझुंगा यह भी है वादा।
Wednesday, 1 November 2017
## जीत ख्यालों की ###!!!
ख्यालों का हूँ बादशाह मैं,
करता हूँ ज़माने की तस्वीर बयान,
जीवन में मुश्किल, मुश्किल में जीना,
छोटी-२ बातें बन जाती है दास्तां यहाँ।
दुनियां को समझाने को मरा हूँ कई बार,
मौत से डरा नहीं पर जीवन से मानता हूँ हार,
समझाने के लिए हारना, झुक जाना भी है जीत,
मात्र यही है मेरे जीने का और मरने का सार।
मुड़ जाने की बात कभी न करना,
उठ जायेगी तलवार ये वरना,
डटा रहता हूँ मैं जिद्दी बहोत हूँ,
सिखा है मैंने शांत रहना और कभी न डरना।
मुस्कुरा कर ही लौह बेड़िया को तोडना,
ठहरना, फिर भी मुसीबतों से मुँह न मोड़ना,
अलग-२ किस्से कहानियां मैं जीता हूँ,
और अंत में उन सबको एक साथ जोड़ना।
Thursday, 26 October 2017
### बेहतर कौन ...
उम्दा था विचार मेरा लेकिन मेरे मायनो में,
और हो न सकी शर्त पूरी दुनिया के आइनों में।
रुक गया फिर सोचने और रह गयी बात अधूरी,
कोशिशें भी न हुई मुकम्मल, जो थी बहोत जरुरी।
सुना है परिंदो पे किसी का जोर नहीं है चलता,
और इनके हौसलों का कभी सूर्य भी नहीं है ढलता।
और इसी भरोसे में मैं भी कुछ बढ़ता चला गया,
सैकड़ों जिद्द लिए बेवज़ह ही उड़ता चला गया।
विशाल हो कितना भी पर इंसान बहोत है लाचार,
पर फिर भी पीछे न हटे करने सपनो को साकार।
कभी खुद से तो कभी खुदा से अक्सर ये डरता है,
लेकिन काम आये किसीके ऐसा क्यों नहीं करता है।
परिन्दे ही है बेहतर जो टूटा घर फिर से बनाएं,
न की इंसान के माफिक बदले की आग जलाएं।
मन मुताबिक न हुई तो कहता सब करते अत्याचार है,
लेकिन खोज से पता चला की इंसान बहोत ही मक्कार है।
Subscribe to:
Posts (Atom)