Wednesday, 2 July 2014

::: निवेदन... !!!

गुजरती हुई इस राह पे जब बैठूँ सोचने,
बटोरने को ज्यादा और संजोना बड़ा है,

आज देखता हुँ जब इंसान की नियत,
मुसीबत बहोत और सुधारना कड़ा है,

लालच, गुनाह और सब देखूं प्रयाप्त,
अब मुश्किल बढ़ी है और रोना बढ़ा है,

पथ पे पड़ी आहात जिस्म यूँ पुकारे बेसूद,
निवेदन ना सुनी और अब कैंडल लिए खड़ा है,

पूज्य तुम्हारी वो पत्थर की मूरत झूठी,
क्यों चुपचाप, शांत और अब मौन पड़ा है,

आँखे खोल ही नहीं, अपितु देख भी तो जरा,
भागती हुई ये दुनिया और मस्तिस्क जड़ा है,

समझो अब, जागो इंसान देर हो गयी बहोत,
निर्जीव की भक्ति और सजीव पे क्यों अड़ा है ||

!!! Love Criticized … !!!

Talk not of love, it gives me pain,
Which is tougher than an iron chain,
For love being my foe,
Detoured me deep in woe.

Never talk of love,
Just brain’s clog,
Focus to your destination,
With no love contamination.

Just a waste of time hence not mine,
As not in my destiny, am it’s enemy.

It’s a matter of chance,
Could do big menace,
It’s a total mystery,
Better is maths, chemistry.

But love always clings to life,
Spraying many feelings to life,
So never ignore feelings,
But also no further dealings.

It’s a fault of love,
As there’s no halt of love,
So never talk of love,
Better is hope of love…

Tuesday, 1 July 2014

Lovely, Lonely and Only Girl…

Everything stashed,
Something crashed,
Joy and grief,
Part of life indeed,

Eclectic in graces,
Avarice of blesses,
Prevalent pain,
Hope all go in vain,

Fraud affairs,
Generous prayers,
Feeling very lonely,
But nature is homely,

Smuggling thoughts,
Afraid of ghosts,
Eternal is the feeling,
Waiting for the healing,

Gifts, fun for all,
No praises for that girl,
But she is good,
One of best in the woods,

Esoteric emotions,
Sensible missions,
Innocuous deeds,
Appearing woozy,

Very much moody...
Can’t write more,
But really adore,
Naughty, cute and all,
She is a beautiful doll,
Just to concede,
I care indeed...
Just to console,
Love by all...

Sunday, 29 June 2014

||| सच्चे बनो ईश्वरवादी नहीं... |||











हाँ तो बुलावो फिर अपने भगवान को,
जिसे पूजते हो बड़े नाज़ से, उस पाषाण को,
और मेरे मनाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा,
क्या खत्म करेगा वो भीतर बैठे शैतान को...

क्यों नही है न कोई जवाब मेरे सवालों का,
क्या जवाब देगा वो, कभी जुर्म के मशालों का,
और बहोत देखा है मैंने सर झुकाते लाखों को,
तुम भी देखो दिल दुखाते, ढोंगी उन सलाखोँ को...

और मैं कौन हुँ जो पत्थर-प्रेमी की आलोचना करू,
सब मतलब के लोग और मैं भी उसी वन की एक तरु,
अपने कृत्य में रखो सार्थकता, मन की शान्ति पाने को,
खुद पे करो भरोसा, बर्बाद क्यों समय एक पत्थर मनाने को...

और अब ये रोष क्यों, मुझपे इतना और ये क्रोध भला क्यों,
चलो पुकार ही लो अपने भगवान को, मुझे मिटने को यूँ,
जागो और मेरी मानो तो व्यर्थ ही ये प्रयत्न क्यों करना,
खुद में सच्चाई लाओ, एक पाषाण से ऐसा भी क्या डरना...

अब तुम कहोगे की ये आस्था है, विस्वास है कोई डर नहीं,
तो मरते हैं, बिलकते हैं विनाश में उनकी क्यों कोई कदर नहीं,
मुझे बताके, मुझे जताके, मुझसे नफरत से नहीं मिलेगा कुछ,
तथ्य की, सत्य की करो पूजा तो बदलेगा कुछ ना कुछ तो सचमुच...

Tuesday, 24 June 2014

||| दुखी हुँ अचेत नहीं... |||

जाते-जाते एक ऐहसान करते जा,
अपने सारे दर्द मेरे हिस्से भरते जा,
और कभी मेरी ख्वाइश का ज़िक्र ना करना,
अपनी खुशी में कभी मेरी फ़िक्र ना करना...

बहोत फ़ासले तय किये इस मुकाम पे आने को,
सहा है दर्द बहोत यहाँ सुकून न पाने को,
मौत की सेज़ भी सजी तो मौत लौटती बोली,
तू वक़्त ले थोड़ा और अपना दर्द बढ़ाने को...

दुःख और दर्द में अंतर आसान और इतना है,
दुःख में सिर्फ हार और दर्द में ही जितना है,
और दुःख में आते हैं विचार तो सच्चे हैं न,
क्युकि सफेदी मुश्किल और दाग अच्छे हैं न...

ये हुई दुःख-दर्द की घिसी-पिट्टी पुरानी बात,
अब है बारी करने की अर्थ की सायानी बात,
किसी भी दशा में हो बस खुशी बांटते रहो,
ना कर सको ये तो सिर्फ दुःख ही छांटते चलो...

और तेरे होने की खुशी भी संभाल ही थी,
तो तेरे जाने का गम उससे बड़ा तो नहीं,
हा मैं दुखी हूँ पर अचेत ना ही मक्कार यहाँ,
अधूरा हुँ और ना हो सकूंगा कभी साकार यहाँ...

आधार !!!

दिल टूटने का लिखने से क्या सम्बन्ध है, 
ठोष हृदए को विचार आने में क्या कोई प्रतिबंध है, 
जीवंत हुँ तो रखता हुँ अपना मंतव्य हर कहीं, 
इंसान बनने की राह पे बात करता हुँ जो है सही...

दिल लगाने पे भी अक्सर होती है बहस यहाँ, 
बातें हैं बेबाक परन्तु नियत तो है सहज कहाँ, 
देखती हैं ये आँखे और सुनती है किस्सा-ए-प्रज्ञा, 
जरुरत नहीं इसे दिल, ना ही किसी टूट की आज्ञा...

अगले छंद में करता हुँ बयान अपने दर्दनाक लिखने का, 
समझो तो तुम भी प्रत्यन करना अपने ना बिकने का...

अपने समाज की संरचना बड़ी कठोर और कुछ यूँ, 
पीकर वाहन चलाना मना तो बार में पार्किंग है क्यों, 
बलात्कार के मामले हर दिन मौसम के हाल के माफिक, 
इसको रोकने का उपाय करो इसकी चर्चा करते हो क्यों ||

Monday, 23 June 2014

||| जिद्दी हुँ पर कपटी नहीं... |||

असली सूरत दिखाऊँ तो जिद्दी कहें सब,
तो क्या सबकी खुशी को ढोंगी जाऊँ अब,
चेहरा अनेक देख के सोचता हुँ मैं भी कभी,
किसी ना किसी मोड़ पे क्यों टूट जाते हैं सभी...

इसी कश्मकश मे बढ़ता चला गया हुँ मैं,
अर्थ-खोज़ मे उड़ता चला गया हुँ मैं,
नहीं सह सकता चाहे समझो कसूरवार जितना,
अपनी नज़रों मे उठा रहूँ क्या काफी है इतना...

जिद है मुझे और ख्वाईश भी है लड़ने की,
उम्मीद से भी ज़्यादा लत है झगड़ने की,
इस राह मे आए है ऐसे मुकाम कई मरतबा,
बन गया अटूट हिस्सा जिनका कोई न अर्थ था...

नहीं देख सकता अब ये नकली बनावटी लोग,
करतब करे अनेक पर मकसद सबका बस भोग,
बहोत हुआ अब बंद करो ये ढोंग स्वेत कृत्य का,

नादान नहीं सच्चे हैं वो जो टाल जाए ये छल ह्रदय का...

Sunday, 15 June 2014

||||||||||||| अंत! |||||||||||||


पल-२ एक बोझ सा है,
कभी-२ एक खरोंच सा है,
फैसले करे ये लकीर-ए-हथेली,
कभी-२ ये सोच सा है,

उठी-२ एक एहसाह भी है,
दबी-२ एक प्यास भी है,
जागेगा अंदर का इंसान कभी,
दबी-२ ये आस भी है,

रुके-२ सब कदम क्या कहें,
झुखे-२ सब अश्क क्या कहें,
मुर्दो की इस मायूस दुनिया में,
झुके-२ ये शख्श क्या कहें,

धीरे-२ बर्बाद हुआ हुँ,
चलते-२ फरियाद हुआ हुँ,
गूंगी भीड़ में आगे बढ़के,
चलते-२ महताब हुआ हुँ,

डरते- अब मौन हो गया,
बढ़ते- अब कौन हो गया,
खतम हो ये सफर बिन मंजिल मिले,
बढ़ते- दबाव में सोन(सोना) हो गया ||

|||||| प्रतिवाद ||||||

कभी पीता तो नहीं हुँ,
होश में भी रहता नहीं हुँ मैं,

सपनों में खोया रहूँ हमेशा,
पर सोता भी कहाँ हुँ मैं,

सामने दिखती है मंज़िल धुँधली,
रुका हुआ हुँ, पर चलता नहीं हुँ मैं,

आशाएं लिए लाखों इस जहाँ में,
और पल भी बचे नहीं हैं मेरे,

लोभ में प्यार के फिरता हुँ,
ऐतबार है नहीं रिश्तों पे मगर मुझे,

बेमोल सा भटकता हुँ हर कहीं,
इस तरह बिकता है हर लम्हा मेरा,

झुकना सीखा ही नहीं किसी मोड़ पे,
पर सर कटाने को डरता भी हुँ मैं,

जुबान पे एक ताला सा है,
पर चुप भी रहता नहीं हुँ मैं ||

Tuesday, 9 July 2013

कश्मकश...

इसी कश्मकश मे बठता चला गया हु मै,
अर्थ-खोज़ मे उडता चला गया हु मै,

जिद है मुझे और ख्वाईश भी है लडने की,
उम्मीद से भी ज़्यादा लत है झगडने की,

नहीं सह सकता चाहे समझो कसूरवार जितना,
अपनी नज़रो मे उठा रहू क्या काफी है इतना,

इस राह मे आए है ऐसे मुकाम कई मरतबा,
बन गया अटूट हिस्सा जिनका कोई न अर्थ था…