Saturday, 13 December 2014

॥॥ ख्वाइश ॥

ख्वाइश के दो पन्ने कुछ यूँ मैं गाता हूँ,
जैसे अपने दर्द की दास्ताँ यूँहीं सुनाता हूँ,
टूटा नहीं ना ही हमदर्दी की चाह है कोई,
जैसे हार के कुछ किस्से बस गुनगुनाता हूँ॥

इन किस्सों को अपने दिल से यूँ न लगाना,
जैसे किसी कमी का कोई बहाना हो बनाना।

बीत जाता है बहोत वक़्त यूँहीं इस राह में,
कुछ समझने, कुछ समझाने की चाह में,
मौत पे रुकता नही, बस सब बिखर जाता है,
नींद में मिलके भी होश में वो मुकर जाता है॥

गुनाहों की बात न कर मैं कुछ खो जाता हूँ,
होश में होके भी अपने में ही ग़ुम हो जाता हूँ।

मेरी बेमतलबी को नाप ले ऐसा पैमाना कोई नही,
दिखा दे असली सूरत वो आइना कोई नही,
खुद को चीज़ कहूँ तो होती है तकलीफ बहोत,
और बनु नाचीज़ जहाँ ऐसा जमाना कोई नही।।।

No comments:

Post a Comment